फांसी नहीं, हमें गोली से उड़ा दो…भगत सिंह ने गवर्नर को लिखे पत्र में यह क्यों कहा?

फांसी नहीं, हमें गोली से उड़ा दो…भगत सिंह ने गवर्नर को लिखे पत्र में यह क्यों कहा?

मंजिल वही थी. रास्ता अलग था. आजादी के संघर्ष की यह दूसरी धारा थी. उनका मानना था कि प्रार्थनाओं, उपवास, सत्याग्रह जैसे अहिंसक रास्तों से जुल्मी अंग्रेजों की दासता से देश की मुक्ति मुमकिन नहीं है. उन्होंने संघर्ष के क्रांतिकारी रास्ते में अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. हंसते हुए फांसी के फंदे चूमे. तिरंगे की डोरी खींचने की उनकी चाहत नहीं थी. उनका सपना तो आकाश चूमता शान से लहराता-इतराता तिरंगा देखना था. इसी के लिए जिए. इसी के लिए बलिदान हो गए. शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह संघर्ष के उस रास्ते का सबसे तेजस्वी चेहरा थे.

सिर्फ साहस-शौर्य-समर्पण नहीं. अदभुत प्रतिभाशाली थे. सिर्फ साढ़े तेईस साल की उम्र मिली. इसमें आठ साल का छोटा सा राजनीतिक-सामाजिक जीवन और इतने ही वक्त में उनकी वैचारिक-बौद्धिक सक्रियता गजब की रही. पढ़ने का जुनून ऐसा कि फांसी के लिए जाते समय तक पढ़ते रहे. हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, उर्दू में खूब लिखा.

8 अप्रैल 1929 की वो यादगार तारीख

8 अप्रैल 1929. यह तारीख आजादी के संघर्ष के क्रांतिकारी रास्ते को समझने के लिए हमेशा याद रखनी जरूरी है. इस दिन सरदार भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट कर फ्रांसीसी क्रांतिकारी वेलियां का कथन दोहराया था कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंचे विस्फोट की जरूरत होती है. इस विस्फोट का उद्देश्य किसी को मारना या घायल नहीं करना था. हल्के बम खाली बेंचों की ओर फेंके गए. वहां फेंके गए पर्चों में इसका मकसद भी बताया गया. सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के पास बाहर निकल जाने का पूरा मौका था. लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी.

सांडर्स वध के बाद सरदार भगत सिंह की पुलिस को तलाश थी लेकिन वे उसकी पकड़ से बहुत दूर थे. चंद्रशेखर आजाद असेंबली बम एक्शन में सरदार की हिस्सेदारी के पक्ष में नहीं थे. उन्हें पता था कि सरदार भगत सिंह के एक बार जेल में दाखिले के बाद उनकी जिंदा वापसी मुमकिन नहीं होगी. लेकिन सरदार भगत सिंह सर्वोच्च बलिदान के लिए उद्यत थे. आजाद को झुकना पड़ा. इस एक्शन के जरिए सरदार भगत सिंह ने देश – दुनिया को क्रांतिकारियों के संघर्ष और विचारधारा की जानकारी देने के लिए असेंबली मंच का प्रभावशाली इस्तेमाल किया.

Bhagat Singh

भगत सिंह

अदालती कार्यवाही को बनाया पलटवार का हथियार

गिरफ्तारी के बाद मुकदमे का सामना करते भगत सिंह ने अदालती कार्यवाही को भी अपने बचाव में नहीं बल्कि अंग्रेजी दासता के विरुद्ध लोगों को जगाने के लिए पलटवार का हथियार बना दिया. उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा कि क्रांतिकारी अकारण हत्या,अशांति और अराजकता में यकीन नहीं करते.

6 जून 1929 को सेशन कोर्ट में अपने बयान में उन्होंने कहा, “मानवता से प्यार करने में हम किसी से पीछे नहीं हैं. हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है. हम न तो बर्बरता उपद्रव करने वाले देश के कलंक हैं (जैसा सोशलिस्ट दीवान चमनलाल ने कहा है) और न ही पागल, जैसा लाहौर के ट्रिब्यून सहित कुछ अखबारों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है. हमें ढोंग और पाखंड से नफरत है. हमनें यह काम किसी व्यक्तिगत स्वार्थ या विद्वेष भावना से नहीं किया है. हमारा उद्देश्य केवल उस शासन व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था, जिसके हर काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन अन्याय करने की असीम क्षमता प्रकट होती है. आक्रामक उद्देश्य से जब बल प्रयोग होता है तो उसे हिंसा कहते हैं लेकिन जब यह हिंसा वैध आदर्श के लिए होती है तो उसका नैतिक औचित्य होता है. किसी हालत में भी बल प्रयोग न किए जाने का विचार अव्यावहारिक है.

हमारा आंदोलन गुरु गोविंद सिंह,शिवाजी,कमाल पाशा, रजा खां,वाशिंगटन,गैरीवाल्डी,लाफायेत ओर लेनिन के आदर्शों पर केंद्रित है. चूंकि भारत की विदेशी सरकार और हमारे राष्ट्रीय नेतागण दोनों ही इस आंदोलन की ओर से उदासीन हैं और कान बंद किए हुए हैं, इसलिए हमनें अपना कर्तव्य समझा कि ऐसी चेतावनी दी जाए , जिसकी अनदेखी न की जा सके.”

गजब के पढ़ाकू

सरदार भगत सिंह खूब पढ़ते थे. उनके साथी शिव वर्मा ने उनसे अपनी मुलाकातों का जिक्र करते हुए लिखा है, ” मुझे एक भी अवसर नहीं याद है,जब उनके हाथ में कोई पुस्तक न रही हो.” उनके प्रिय अध्यापक छबील दास ने भगत सिंह की प्रिय पुस्तकों में “क्राई फॉर जस्टिस” , “हीरो एंड हीरोइंस ऑफ रशिया” और “माई फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम” (जिसका भगत सिंह ने हिंदी में अनुवाद भी किया) का जिक्र किया है.

द्वारिकादास लाइब्रेरी के इंचार्ज राजाराम शास्त्री के अनुसार भगत सिंह के अनुसार भगत सिंह ने वीर सावरकर की जब्त पुस्तक “भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर” को छपवाकर बंटवाया. मैजिनी और गैरीबाल्डी की जीवनियां उन्हें बहुत प्रिय थीं. “अराजकतावाद और अन्य निबंध” वह पुस्तक थी , जिसके एक अध्याय “हिंसा का मनोविज्ञान” में फ्रेंच क्रांतिकारी वेलियां का 1883 का वो बयान छपा था, जो उसने फ्रांसीसी संसद में बम का धमाका करते हुए दिया था, “बहरों को सुनाने के लिए बड़े विस्फोट की जरूरत होती है.” भगत सिंह ने यही कथन 46 साल बाद 1929 में भारत की सेंट्रल असेंबली में बम फेंक कर दोहराया था. कम वक्त में भगत सिंह ने देश-दुनिया की जो तमाम पुस्तकें पढ़ीं, उनकी फेहरिस्त काफी लंबी है. फांसी के लिए ले जाए जाते समय भी वे पढ़ रहे थे.

क्या भगत सिंह फांसी से बचना चाहते थे?

क्या सरदार भगत सिंह को फांसी से बचाया जा सकता था? इसके लिए लोगों को महात्मा गांधी से बड़ी शिकायत रही है. लेकिन भगत सिंह को चाहने-मानने वाले क्या चाहते थे, से भी बड़ा सवाल है कि अपनी जिंदगी को लेकर वे खुद क्या सोचते या चाहते थे? सेंट्रल असेम्बली में बम फोड़ने के बाद उन्होंने भागने की जगह गिरफ्तारी दी. मुकदमे में बचाव की जगह सांडर्स की हत्या की जिम्मेदारी ली और कारण बताए. अंजाम उन्हें पता था. ऐसे भगत सिंह फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद क्या अंग्रेजों की किसी मेहरबानी के कायल होते? बलिदान के लिए खुशी-खुशी तैयार भगत सिंह ने पिता सरदार किशन सिंह को प्रिवी काउंसिल में अपील से रोका था. मां विद्यावती ने उनकी गैर जानकारी में वायसराय के यहां फांसी रद्द करने की दरखास्त दी. सजा टालने की कोशिशों से सरदार भगत सिंह बेचैन थे.

Bhagat Singh

23 मार्च को देश के वीर सपूतों सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई.

बचाव की पिता की कोशिशों से हुए नाराज

मुकदमे के शुरुआती दौर में 26 अप्रेल 1929 को उन्होंने पिता को लिखा,” लगभग एक महीने में सारा नाटक समाप्त हो जाएगा. ज्यादा परेशान होने की जरूरत नही है. ” विशेष ट्रिब्यूनल की 5 मई 1930 को कार्यवाही शुरू होने के मौके पर भगत सिंह सहित छह साथियों ने लिखा-पढ़ी में अपनी बात कही,”हम इस मुकदमे की कार्यवाही में किसी भी भी प्रकार से भाग नही लेना चाहते. अंग्रेज न्यायालय जो शोषण के पुर्जे हैं, न्याय नही दे सकते. हम जानते हैं कि ये न्यायालय सिवाय ढकोसले के और कुछ नही हैं.” 30 सितम्बर 1930 को भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह , जो स्वयं आजादी की लड़ाई में जेल जाते रहते थे, ने ट्रिब्यूनल में अर्जी पेश करके बचाव के अवसर की मांग की.

भगत सिंह ने 4 अक्टूबर 1930 को लिखा,”मुझे जानकर हैरानी हुई कि आपने मेरे बचाव के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल में अर्जी भेजी है. यह खबर इतनी यातनामय है कि मैं उसे खामोशी से बर्दाश्त नहीं कर सका. आपका पुत्र होने के नाते मैं आपकी भावनाओं का सम्मान करता हूं. पिता जी, मैं बहुत दुख अनुभव कर रहा हूं. मुझे भय है, आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस कार्य की निन्दा करते हए मैं कहीं सभ्यता की सीमाएं लांघ न जाऊं और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जाएं. लेकिन स्पष्ट शब्दों में मैं अपनी बात अवश्य कहूंगा. यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी से कम नहीं मानता. आपके संदर्भ में मैं इतना ही कहूंगा की यह एक कमजोरी है-निचले स्तर की कमजोरी.”

फांसी नहीं, हमें गोली से उड़ा दो

मौत के मुहाने खड़े भगत सिंह क्या चाहते थे, यह बताता है उनका 20 मार्च 1931 का पंजाब के गवर्नर को लिखा ख़त. उसका यह है अंश,” जब तुमने हमे मौत के घाट उतारने का निश्चय कर लिया है तो तुम निश्चय ही ऐसा करोगे. तुम्हारे हाथ में शक्ति है और संसार में शक्ति ही सबसे बड़ा औचित्य है. हम जानते हैं कि जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत ही तुम्हारा मार्ग निर्देशन करती है. हमारा पूरा अभियोग इसका प्रमाण है. यहां हम कहना चाहते हैं कि तुम्हारे न्यायालय के कथनानुसार हमने एक युद्ध का संचालन किया , इसलिए हम युद्ध बन्दी हैं और हम कहते हैं कि हमारे साथ वैसा ही व्यवहार हो अर्थात हम कहते हैं कि कि हमे फांसी चढ़ाने की जगह गोली मार दी जाए.”

उसी जेल में बन्द कांग्रेस नेता भीमसेन सच्चर ने भगत सिंह की कोठरी के सामने से गुजरते हुए उनसे लाहौर षड्यंत्र केस में बचाव न करने का कारण पूछा था. भगत सिंह का जबाब था,” इन्क्लाबियों को मरना पड़ता है. उनके बलिदान से उनके मकसद को मंजूरी मिलती है, न कि अदालत में अपील से.”

माएं बच्चों के भगत सिंह बनने की करेंगी आरजू

लाहौर सेंट्रल जेल की चौदह नम्बर बैरक में विजय कुमार सिन्हा सहित कुछ और क्रांतिकारी साथी बंद थे. उसी दोपहर उन सबने भगत सिंह को एक लिखित सन्देश भेजा,” सरदार आप एक सच्चे क्रांतिकारी साथी के तौर पर बताएं कि क्या आप चाहते हैं कि आपको बचा लिया जाए? इस आखिरी वक्त में भी शायद कुछ हो सकता है! भगत सिंह ने उसका लिखकर जबाब भी भेजा था,” जिंदा रहने की ख्वाहिश कुदरती तौर पर मुझ में भी होनी चाहिए. मैं इसे छिपाना नही चाहता लेकिन मेरा जिंदा रहना एक शर्त पर निर्भर करता है. मेरा नाम भारतीय क्रांतिकारियों का मध्य बिंदु बन चुका है और दल के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है. इतना ऊंचा कि जिंदा रहने की सूरत में इससे ऊंचा में हरगिज़ नही हो सकता. आज मेरी कमजोरियां लोगों के सामने नही हैं.

अगर मैं फांसी से बच गया तो यह जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का निशान मद्धिम पड़ जायेगा या शायद मिट ही जाए. लेकिन मेरे दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी पाने की सूरत में भारतीय माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू करेंगी और देश के लिये बलिदान देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद की सम्पूर्ण शैतानी राक्षसी ताकतों के वश की बात नही रहेगी.

मां, तुम लाश लेने न आना!

सरदार भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र सिंधु के अनुसार फांसी वाले दिन “परिवार के लोग अंतिम मुलाकात के लिए आए, परन्तु जेल अधिकारियों ने कहा कि केवल माता-पिता और भाई-बहन मिल सकते हैं. भगत सिंह के माता-पिता यह कैसे स्वीकार करते कि दादा-दादी और चाचियां अंतिम बार भगत सिंह को न देखें ? जब जेल अधिकारी सबको मिलाने को तैयार नहीं हुए तो माता-पिता भी बिना मिले वापस हो गए.”

सिंधु ने परिवार से 3 मार्च 1931 की भगत सिंह की आखिरी मुलाकात को शब्दों में पिरोया है. पूरा परिवार उदास था. भगत सिंह हंसते हुए अपना वजन बढ़ने की जानकारी दे रहे थे. सबसे अलग-अलग बात की. सबको धीरज दिया. आखिरी बारी मां की थी. पास बुलाया. हंसते हुए कहा,” लाश लेने आप मत आना. कुलवीर को भेज देना. कहीं आप रो पड़ीं तो लोग कहेंगे कि भगत सिंह की मां रो रही हैं. 23 मार्च 1931 को फांसी के सिर्फ दो घंटे पहले उनकी आख़िरी इच्छा जानने के लिए वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने में कामयाब हो गए थे.

मेहता ने लिखा,” मैं जानता था और वह भी जानते थे कि मृत्यु का क्षण निकट आ रहा है. इसके बावजूद मैंने उन्हें प्रसन्न मुद्रा में पाया. उनके चेहरे पर रौनक ज्यों की त्यों थी और जब मैं पहुंचा तो वह पिंजरे में बंद शेर की तरह टहल रहे थे. मुस्कुराते हुए भगत सिंह ने किताब “द रेवोल्यूशनरी लेनिन” के विषय में पूछा. मैंने उन्हें यह किताब सौंपी. फांसी के लिए जाने के ठीक पहले तक वे यही किताब पढ़ रहे थे.

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